Saturday, 31 August 2019

Keer jain GK question - Keer kon hai

5 क्रियोद्धारकों की शिष्य परम्परा स्थानकवासी परम्परा कहलाई ?
🅰1⃣2⃣ पूज्य श्री जीवराज जी म.सा.
पूज्य श्री लवजी ऋषि म.सा.
पूज्य श्री धर्मसिंहजी म.सा.
पूज्य श्री धर्मदासजी म.सा.
पूज्य श्री हरजीऋषि म.सा.

स्थानकवासी साधुओं को ढूंढिया महाराज ऐसा क्यों कहा जाता था ?
🅰1⃣4⃣ पुराने जमाने मे कई बार साधु संतों को जुने पुराने मकानों (खण्डहरों) में ठहरने का प्रसंग बनता था बोलचाल की भाषा मे उस जगह को ढूंढा कहा जाता था, उन ढूंढो में ठहरने के कारण ढूंढिया नाम प्रचलित हो गया ।
कई विरोधियों ने भी इस नाम से पुकारना शुरू किया क्योंकि ढूंढा शब्द भुंडा (यानी खराब) शब्द जैसा है इसलिए चिढ़ाने के लिए ये शब्द इस्तेमाल किया पर महापुरुषों ने इसको भी समझकर लिया और खुद को ही / शुद्ध धर्म को ढूंढने की बात मानकर इस शब्द को सहज स्वीकार कर लिया ।
✳1⃣5⃣ 22 टोला या 22 संप्रदाय क्या होता है ?
🅰1⃣5⃣ आज स्थानाकवासी जैनों की अधिकांश परंपराएं पूज्य युगप्रधान आचार्य श्री धर्मदासजी म.सा. की है, पूज्य म सा के 99 शिष्य 22 टोलो (समूहों) में धर्मप्रचार हेतु अलग अलग प्रान्तों में पधारे थे उन्ही के नाम से 22 टोला या 22 सम्प्रदाय नाम प्रचलित हो गया है (हांलाकि कुछ परम्पराये 22 सम्प्रदाय की नही भी है पर एकता की दृष्टि से वे भी खुद को 22 सम्प्रदाय ही कहते है) ।
✳1⃣6⃣ वर्तमान में ये सभी सम्प्रदायें किस सर्वमान्य नाम से जानी जाती है ?
🅰1⃣6⃣ स्थानकवासी परम्परा ।
✳1⃣7⃣ क्रियोद्धार का अर्थ क्या है ? यह क्यों किया जाता है ?
🅰1⃣7⃣ जब धर्म-संघ में सिद्धांत या आचार सम्बन्धी शिथिलताएँ आई तब कुछ महापुरुषों ने पुनः धर्म के शुद्ध स्वरूप को प्रचारित करने के लिए, सत्य धर्म की रक्षा के लिए अनेक उपसर्ग (यहां तक कि मारणान्तिक कष्ट) सहन करके सद्धर्म की रक्षा की । उनके इस महान पुरुषार्थ को “क्रियोद्धार” कहते है ।
✳1⃣8⃣ इन महापुरुषों को क्रियोद्धार की जरूरत क्यों पड़ी ?
🅰1⃣8⃣ भगवान के निर्वाण के अनेक वर्षों बाद कई बार 12 वर्षीय दुष्काल पड़े जिसमें जिनशासन को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । उस समय अधिकांश शुद्ध संयमी मुनियों ने तो संथारे किये और कई साधुओ ने दूर दूर विचरण कर शुद्ध संयम पालन किया । ऐसे समय मे कुछ साधुओं (?) ने एक स्थान(चेत्य) में रहना, छत्र धारण करना, पालखी में बैठना, स्वयं के लिए बनाया हुआ आहार ग्रहण करना आदि जिनाज्ञा विरूद्ध कार्य करना प्रारम्भ कर दिया । वे यति कहलाते थे । धीरे धीरे ऐसे साधु हजारो की संख्या में हो गए और शुद्ध संयमी साधू बहुत कम बचे । जो थोड़े-बहुत थे वो भी जन-सम्पर्क से दूर रहकर आत्महित की साधना में लीन रहते थे । ऐसे समय में लोंकाशाह आदि ने आगम के अध्ययन से शुद्ध धर्म को जानकर पुनः उसको स्थापित करने का संकल्प लिया । वे मुख्य सुधारक छः हुए – 1. लोंकाशाह एवं उत्तर 12 में बताए गए 5 महापुरुष ।
✳1⃣9⃣ वे क्रियोद्धारक हमारे लिए महान उपकारी क्यों है ?
🅰1⃣9⃣ क्योंकि आज हमें प्रभु महावीर देव का धर्म फिर से उसी रूप में मिल गया, ये उन महापुरुषों का ही उपकार है । इसके लिए उन्हें बहुत उपसर्ग सहन करने पड़े । उस समय यतियों का विशेष प्रभाव था । वे यति लोग मंत्र-तंत्र आदि विद्याओ के जानकार थे (हालांकि इन मुनियों के शुद्ध संयम के तेज से कई बार उनके मंत्रबल भी फीके पड़ गए) । उन यतियों का राजाओ पर प्रभाव था । वे राजाओं को कहकर स्थानकवासी मुनियों का राज्य में प्रवेश बन्द करवा देते थे । कई प्रकार के शारीरिक उपसर्ग देते थे । विद्वेषी लोग गोचरी में जहर मिला देते है । ऐसे समय में भी ये महापुरुष समभाव से कष्टो को सहन करते हुए धर्म के प्रति दृढ़ रहे और विचरण करते हुए जन-जन को धर्म का सही स्वरूप समझाया। उन्हीं की कृपा आज हमें सहजता से यह धर्म-परम्परा प्राप्त हो गई है । अब हमारा कर्त्तव्य है कि हम मिथ्या प्रवृत्तियों से दूर रहकर अपनी परम्परा के प्रति दृढ़ रहे ।
✳2⃣0⃣ स्थानकवासी परम्परा की विशेषताएं बताइये ।
🅰2⃣0⃣ स्थानकवासी परम्परा की विशेषताएं :-
  1. मूल आगम ही प्रमाणभूत – तीर्थंकर भगवान, गणधर और 10 पूर्व से 14 पूर्व तक के ज्ञान वाले एकांत सम्यग्दृष्टि होते है इसलिए वे सत्य प्ररूपणा ही करते है । अप्रमत्तता के कारण उनसे असावधानी से भी गलत प्ररूपणा नहीं होती पर इससे कम ज्ञान वालो से हो सकती है । इसलिए स्थानकवासी परम्परा इनके द्वारा रचित मूल आगमों को ही आगम मानती । बाद के आचार्यो द्वारा लिखित ग्रन्थों में जो बात आगम-सम्मत हो उसे ही स्वीकार करते है, आगम-विरुद्ध बातों को नहीं ।
  2. सावद्ययोग का त्याग ही धर्मतीर्थ है – सावद्य (हिंसा) का त्याग ही धर्म है । धर्म या मोक्ष के नाम पर की जाने वाली हिंसा भी जिनशासन में मान्य नहीं है । सभी जीवों को अपने जैसा मानो – यही जैन शासन का उदघोष है । फूल, अगरबत्ती आदि में हिंसा हैं और जहां हिंसा है वहां धर्म नहीं है । जो सावद्ययोग के त्यागी है वही वन्दनीय ओर पूज्यनिय है ।
  3. जड़ पदार्थ पूजनीय नहीं – मूर्ति आदि जड़ पदार्थों में भगवददशा तो ठीक है सावद्ययोग का त्याग भी नहीं होता । किसी भी मुनि या श्रावक ने जिनपूजा, प्राण-प्रतिष्ठा आदि की हो, ऐसा आगम में कही उल्लेख नहीं है ।
  4. शुभभाव के निमित्त पूज्य नहीं – शुभ भाव आदरणीय है पर उनके निमित्त पूजनीय नही है । जैसे नमिराजर्षि को कंगन के निमित्त से वैराग्य (शुभ भाव) आये तो हम कंगन की पूजा नही करते है । किसी को चोर को देखकर वैराग्य आ गया तो चोर पूजनीय नही हो गया । ऐसे (मान लो कभी) फ़ोटो आदि को देखकर शुभभाव आ भी गए तो भी वे पूजनीय नहीं है ।
  5. उपकार के लिए पाप सेव्य नहीं – जीव दया, धर्म आदि के नाम पर पाप का सेवन करना आगम सम्मत नहीं है । उपकार के लियों व्रतों में दोष लगाना – ये आत्मसाधना में घातक है ।
  6. क्षेत्र पवित्र नहीं – कोई क्षेत्र पवित्र या अपवित्र नहीं होता । क्षेत्र में पवित्रता का आरोपण करने से अनेक मिथ्या मान्यताओं का जन्म होता है । क्षेत्रों को पूज्य मानकर अनेक आरंभ समारंभ के कार्य होते है । क्षेत्रो पर सामूहिक अधिकार जमाने की भावना होती है ।
  7. सचेल-अचेल दोंनो प्रकार का आचार – वस्त्र पहनने वाले और न पहनने वाले दोनों प्रकार के साधु हो सकते है । और मोक्ष में जा सकते है । वर्तमान युग मे स्वस्त्र साधुता ही उचित लगती है ।
  8. होम-हवन नहीं – तीर्थंकर भगवान के धर्म में होम, हवन, धूप दीप, नैवेद्य आदि किसी का भी स्थान नहीं हैं । ये सावद्य क्रियाएँ है ।
  9. मुखवस्त्रिका – मुख वस्त्रिका मुख पर बांधे बिना यतना पूर्णतः नहीं हो सकती ।
  10. श्रावकों का शास्त्र पठन – श्रावक भी आगम पढ़ सकते है । आगमो में श्रावकों को निर्ग्रन्थ प्रवचन का कुशल जानकार कहा है ।
  11. थोक ज्ञान – आगमों के गहन आशय को सरलता से हृदयस्थ करने के लिए उन्हें “थोकड़ो” के रूप में हिंदी भाषा मे संकलन करके ज्ञानाराधना का विशेष प्रचार हुआ है ।

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